पार्थ-कृष्ण संवाद: भाग 1
पार्थ-कृष्ण संवाद: भाग 1
पार्थ की आसक्ति रण में,
धर्म से कुछ विरत होकर,
मोह बंधन में निरत हो,
कर्म पथ परित्यक्त होकर।
त्यागने रण को चला वो,
थामने बंधन चला हो,
भूलकर गंतव्य अपना,
लक्ष्य जीवन धर्म अपना ।
छोड़कर गाण्डीव रथ में,
छोड़ सारा तेज पथ में,
कर जोड़कर सम्मुख किशन के,
ले खड़ा था द्वंद मन में ।
कुरुक्षेत्र की इस वृहत भूमि में,
पार्थ ने अर्जुन से पूछा,
इस युद्ध का परिणाम क्या है,
क्या नहीं कोई मार्ग दूजा?
धर्म की स्थापना में,
हम अधर्म की राह पर हैं,
जिनके चरण पूजनीय होते,
अरि बने सम्मुख खड़े हैं।
भविष्य इससे क्या मिलेगा,
धर्म ये कैसे चलेगा,
नींव इसकी रक्त पोषित,
छल दम्भ द्वेष पाखंड सिंचित।
क्या सीखने हम चले हैं,
इतिहास क्या गढ़ने चले हैं,
कर्म ये क्या उचित माधव,
क्या है मानव धर्म माधव?
रण के इस संताप से मैं,
बच निकलना चाहता हूँ,
रण की भावी विभीषिका को,
रोक लेना चाहता हूँ ।
मैं किशन इस युद्ध स्थल से,
दूर चले जाऊं कहीं,
रण का ये तूफ़ान भगवन,
रुक जाए थम जाए यहीं ।
तुम ही हे गोपाल,
अब कोई चमत्कार करो,
धरती पे आयी आपदा,
इस युद्ध की विपदा हरी करो।