पांच रूपये
पांच रूपये
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आज भी जब जेब
में हाथ जाता है,
और पांच रूपये का सिक्का
हाथ से टकराता है, तो
बचपन याद दिलाता है !
जब हम बच्चे होते हैं,
बड़े अच्छे होते हैं,
दिल के एकदम सच्चे
होते हैं,
मन के थोड़े कच्चे
होते हैं,
उस समय पांच रूपया
बहुत ज्यादा पैसा
समझ में आता था
गाँव का मेला देखने के
लिये घर से पांच रूपये
मिलते थे,
हम पेट भर खाके,
कुछ पैसे बचा भी लेते थे,
मगर महँगाई के इस
दौर में
पांच रूपये में कुछ
भी नहीं होने वाला है !
उस पांच रूपये को
सारे, रास्ते भर उछालते
फेंकते मौज़-मस्ती
करते चले जाते थे हम,
मिट्टी में गिर जाता तो
पूरा बदन मिट्टी-मिट्टी
हो जाता
खोजते -खोजते मगर
हम खोज ही लेते थे !
आज जब हम बड़े हो गए
हैं, तो वो दिन याद करके
मन ही मन काफ़ी
ख़ुशी मिलती हैं !
पांच रूपये अपनी ज़िन्दगी
का बहुत अहम हिस्सा था,
जिसे चाह कर भी हम भुला
नहीं सकते !