" पाखी की नौकरी लग गई "
" पाखी की नौकरी लग गई "
' जाने के बाद, 'पाखी ' के
हो गया घर सूना - सूना,
रहने लगा मन उदास- उदास,
कैसी होगी वह, सोचती रहती।
कभी बालकनी में...
कभी कमरे में.....
घूमा करती अक्सर ...
घर गन्दा करती फिरती ...
आता बहुत गुस्सा मुझे,
पर, सवाल ही नहीं उठता
कुछ बोलने का ....
सुनती जो नहीं थी वो ...
लेकिन 'तुलसी ' जब उसने
उखाड़ फेंके ....
तब, उसे घर में पनाह
न देने की ठान ली ...
पर, यह क्या, वह कहाॅं
मानने वाली थी ...
उसने भी ठान रखी थी,
इस घर में ही रहने की ।
अंडे ' शू - रैक ' पर देख
हैरान रह गई मैं ....
अब तो उसकी देखभाल करना
बन गया फ़र्ज़ मेरा ...
और प्यार ...
प्यार तो होना ही था ..
एक अंडे से बच्ची निकली ..
लगी होने बड़ी ...
मेरा समय निकलने लगा
देखभाल में ...
दाना, पानी रखना ...
कभी न भूलती ।
उड़ने लगी वह धीरे - धीरे,
डर बना रहता मुझे ...
रात - दिन .....
कहीं वह गिर न जाए ।
देखा मैंने एक दिन
ऊंची उड़ान भरने लगी।
' माॅं कबूतरी ' ने आना
छोड़ दिया .....
हो गई मैं भी निश्चिंत,
है डर नहीं अब दुनिया से
देखा दूसरे दिन ....
पड़ा था खाली ' शू- रैक ' ...
था, फिर से सन्नाटा घर में,
पहली बार बच्चों के जाने से ...
और आज दूसरी बार ....
' पाखी ' के जाने के बाद ....
पर, खुश हूॅं मैं ...
उम्मीद है, मिल गया होगा,
सही रास्ता, अपने जीवन का,
उसे मिल गया सही रास्ता ...
पूछा बच्चों ने,
'पाखी ' का हाल क्या है ?
मैंने कहा- दूसरे शहर में उसे,
नौकरी मिल गई ....
मिल गई नौकरी उसे,
मिल गई नौकरी उसे,
सब बच्चों की तरह ...
वह भी खुश रहे ...
वह भी खुश रहे ..
आबाद रहे .....
