नज़्म
नज़्म
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मैं नज़्म लिखूं या कि फिर कोई गज़ल
ज़ख्म बन यादें तेरी,क्यूं खींची आतीं हैं।
फासले यूं ही नहीं आए दरमियां हरपल,
तेरे लफ़्ज़ों की चुभन,तीर से चुभाती है।
है हर हर्फ़ मेरे दिल का फ़साना निश्छल,
ऑंखें मूंदूं तो तेरी छुअन सहलाती है।
कर सब्र माना नीलम हक़ में नहीं ये पल
मत भूल कि समय ख़ुद में करामाती है।
