नदी का सफ़र
नदी का सफ़र
मेरे सफर मेरी डगर में,
अवरोध कोई है नहीं,
राह अपनी मैं बना लूं,
पर्वतों से डरती नहीं,
मैं नदी बहती रहूं,
पर्वत हों गहरी खाईयां,
गिरने से भी डरती नहीं,
चाहे कितनी हों ऊंचाईयां,
ढाल हो जिस ओर भी,
उस ओर ही चल देती हूं,
पत्थरों के बीच से मैं,
राह को चुन लेती हूं,
सागर से मिलना लक्ष्य है,
मैं बीच में रुकती नहीं,
बदल लेती रूप कई,
पर लक्ष्य कभी बदलती नहीं,
झरना कभी मैं झील बनती,
रौद्र कभी हो जाती हूं,
तीव्रतम से वेग में मैं,
व्यग्र बहती जाती हूं,
क्रोध में जब मैं रहूं,
तो पर्वतों को चीर दूं,
विनाश मैं कर दूं कभी,
कभी सभ्यता को सींच दूं,
समुद्र से मिलने की खातिर,
कोस कई चल देती हूं,
लक्ष्य के नजदीक आ फिर,
शान्त रूप धर लेती हूं,
और फिर धीमे से तट पर,
समुद्र में मिल जाती हूं,
फिर भूलकर अस्तित्व अपना,
समुद्र ही बन जाती हूं।।
