मज़ा नहीं जीने में
मज़ा नहीं जीने में
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बचपन कहीं खो गया , या बचपना,
द्वंद, द्वेष की भावना पलने लगी सीने में।
जीवन का अर्थ बदल गया, या अवस्था,
अब कोई मज़ा नहीं रह गया जीने में।।
माहौल अब वो ख़ुशनुमा नहीं रहे,
खूबसूरती भी खो गई दुनिया की कहीं।
लालच ईर्ष्या द्वेष ही रह गया बचा ,
हम सबके दिलों के खज़ीने में।।
आराम बहुत हैं मगर सुकून खो गए,
ख़ुशियाँ भी है पर मुस्कुराहटें नहीं।
दिन रात में जैसे फ़र्क़ ही खत्म हो गया,
ना मज़ा बाकी बचा अब घूमने ,खाने पीने में।।
कभी धर्म के नामों पर लड़ाई रहती है,
हर किसी के मुंह पर अपनी बड़ाई रहती है।
इंसान तो बचे हैं, इंसानियत का क्या हुआ?
ख़ंजर घुप चुके हैं कानूनों के सीने में।