||"मन"||
||"मन"||
रे मन तू इतना बदहवास क्यों है ?
कभी खुश तो कभी उदास क्यों है ?
कभी आसमां में कुलाँचें भरता है,
कभी ज़मीं में धंसता है,
कभी झरने की निश्च्छल हँसी में बहता है,
कभी बारिश के पानी में नाव लिए फुदकता है,
कभी फलक से तारे तोड़ लाता है,
कभी गुलाब सा महक जाता है रे मन।
कभी काँटों की चुभन का एहसास भी कराता है,
कभी नदी का इठलाता बहाव है ये मन,
कभी पखेरू की तरह पँख खोले आसमां को छूता है ये मन,
कभी पिँजरे के पंछी की तरह कैद में फिर धुनता है ये मन,
कभी उन्मुक्त गगन में पतंग की तरह इठलाता - इतराता है ये मन।
कभी लहलाहते खेत में फसलों के बीच पीली सरसों सा फूला है ये मन,
कभी भरी धूप में पेड़ की छाँव का एहसास करवाता है ये मन,
कभी बच्चें की तुतलाती बोली में तुतलाता है ये मन,
बुढ़ापे में बच्चों की मानिद ऐंठ जाता है ये मन,
हसीना की तरह पल में रूठ और बहल जाता है ये मन,
मन पर घोड़े की तरह लगाम जिसने कस ली,
समझ लो उसी ने "शकुन" ज़िन्दगी फ़तह कर ली !!