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राहुल द्विवेदी 'स्मित'

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राहुल द्विवेदी 'स्मित'

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मन में रावण रहता है

मन में रावण रहता है

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मोटी-मोटी बात है इतनी, जो दिखता है बिकता है ।

चमकदार पन्नी से आखिर, सच कब बाहर दिखता है ।।


डलहौजी की नीति से आगे, आज हमारी नीति गयी ;

अगर देश का नेता चाहे, देश बेच भी सकता है ।।


बाहर से मीठी बाते हैं, नर्म-गर्म लहजे वाली ;

लेकिन कोई कैसे जाने, अंदर क्या-क्या पकता है ।।


राम तुम्हारे राज वंश में, कैसे-कैसे लोग हुए ;

रोज पूजते हैं तुमको पर, मन में रावण रहता है ।


पत्थर को बेकार समझना, नादानी है बस तेरी ;

इसी हिमालय की आँखों से, झरना रोज निकलता है ।


खिलजी मुगल सल्तनत वाले, जो थे कब के चले गये ;

अब जुम्मन अपनी आँखों में, भारत जिन्दा रखता है ।


गौरी भले नहीं मिलता है, मगर आज भी टुकड़ों पर ;

यहीं कहीं जयचंद नाम का, कोई दुश्मन पलता है ।


खुद्दारी में जीना 'अस्मित', इतना भी आसान नहीं ;

कहीं कहीं पर कभी कभी ही, कोई सूरज जलता है ।



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