मज़दूर दिवस
मज़दूर दिवस
जिन मजदूरों के वजह से मिल रहा आराम
उन मजदूरों को हिन्द का आभार
और दिल से प्रणाम
गाँव हो या शहर सबके काम आता मज़दूर
दुःख तो हैं इसका गहरा साथी
पर ये मौज मर्जी चलता राही
उठ भोर के नींदों से
पूरे दिन रहता परिवार से दूर
पिसता घिसता अपना पुरा लहू बहाता
कोई देश खुद को तभी तरक्की में गिनाता
सुबह से शाम फांक धूल मिट्टी गाता हैं
शाम को घर लौटते वक़्त
बदले में दो रोटी ही तो ले जाता है,,
मजदूरों मे भी हैं एक बाल मज़दूर
उसकी दुविधा भी रोटी हैं..
काम पर रखना उसे हैं कानूनी जुर्म
लेकिन उसे भूखे मर जाने देना
क्या कोई धर्म हैं?
बड़े बड़े बैनर, पोस्टर, दीवारों पर
लिखते सब खुद को समाजसेवी
पता नहीं वो करते किस समाज़ की सेवा
जो बच्चे रहते कलम से वंचित
तपते धूप में बनाते ईंट
घिस घिसा हाथों से धोते प्लेट
भड़ा हैं देश का अनाज़ गोदाम
फिर भी दो सुखी रोटी को भूखे मरते रहते,,
बहा अपना लहू पसीना
करते हम सब का काम आसान
मज़दूर छोड़े न कलम मजबूरी से
भूखे मरे न तरसते रोटी को
मिलकर कुछ करना होगा
इन्हें मज़दूरी का मोल नहीं
मिलकर जीने का हक देना होगा।