मित्र
मित्र
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छीनकर हाथ की रोटियाँ भी खा लेता है
ये दोस्त कैसा जो मेरी भूख भी जान लेता है
लड़ता है झगड़ता है हरदम चिढ़ाता है
मेरी ख़ामोशी के राज भी जान लेता है
जमाने भर की दौलत कबाड़ सी लगती है
जब मेरे बिन खुद को श्मसान मान लेता है
उलझनों से जब कभी उदासी आयी हो
धक्का जोर से देता ,खुद जंजाल लेता है
दूर रहकर भी चैन सकूँ से मजाक करता है
एक तू ही मेरा नाम हर सुबह शाम लेता है।
