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Rita Chauhan

Others

4.7  

Rita Chauhan

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'मैं' !!

'मैं' !!

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मैं, एक विचित्र शब्द है ये,

ऊंचे पर्वत चढ़ाए कभी,

तो कभी झट से नीचे गिरा दिया।


ब्रह्मांड के रहस्य ढूंढ निकाले

तो कभी स्वयं के भीतर से भी अनभिज्ञ रखा।

हज़ारों मित्र बनवाये कभी,

कभी एक रिश्ता सम्भाल पाया नही।


“मैं” ही था परेशानियों की तेज़ आँधियों के बीच,

विश्वास के दिये कि लौ को जलाए।

ये “मैं” ही था सूरज के उजाले में भी परेशानियों

को ढूंढते जाए।।


‘मैं’ ने ही ढूंढ निकाले विशाल जलज

के गर्भ से अनगिनत बहुमूल्य मोती,

कभी ‘मैं’ ही भय के कारण तैरना

सीख पाया नही।।


अस्तित्व की इस लड़ाई में,

एक ‘मैं’ उड़ चला आकाश की ओर,

पहले था स्वाभिमान फिर

धीरे-धीरे बनने लगा अभिमान।


कुछ और ऊपर बढ़ा, ब्रह्मांड की ओर

हो दम्भ में चूर, किया अट्टहास

अहा! ये धरती कितनी सूक्ष्म है,

मेरा अस्तित्व ये पूरा व्योम है।


‘मैं’ सबसे ऊपर, सबसे असीम

कुछ और बढ़ा ऊपर,

न था अब पृथ्वी का कोई चिन्ह।


पृथ्वी के अस्तित्व की हंसी उड़ा,

उड़ चला असीम व्योम की गहराइयों में,

अपने अंदर कई पृथ्वियां समां लेने वाले

अनेक ग्रह व ऊर्जा पिंड उसे दिखाए पड़े वहां,

जो बह रहे थे ब्रह्मांड में अविरल लहरों की तरह।


सामने से प्रकाश आता दिखा,

एक अलौकिक शक्ति का तेज।

पास पहुंचा तो पाया,

उसके जैसे अनेक ‘मैं’ नतमस्तक हैं

उस शक्ति के सामने।

आवेग में आ , बढ़ा उनकी ओर

‘मैं’ सबसे बड़ा, सबसे उपर

ठोकर लगी, गिरा वहीं ,


वहां सबको अपने अस्तित्व का

था देना परिचय,

नेत्र उसके ढूंढने लगे अपनी

पृथ्वी का चिन्ह,

न मिला उसे

ब्रह्मांड जो था इतना असीम।


अब अट्टहास की बारी किसी और कि थी,

अहा! पृथ्वी – जो यहां से दिखाई भी नही देती

तू है वहां से आया,

तेरे जैसे कितने ही जीवों का है वहां पे साया,


जब तेरी पृथ्वी ही ब्रह्मांड में है

एक तिनके के समान,

तो तू मुझे बता तेरा कैसे दिखेगा वहां कोई निशान।


दर्प के दंश से ग्रसित वह ‘मैं’

तिनकों की तरह बिखरा पड़ा था,

सृष्टि की रचयिता उस शक्ति के सम्मान।।







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