प्रकृति, मनुष्य और कोरोना
प्रकृति, मनुष्य और कोरोना
सृष्टि, ब्रह्माण्ड के बनते ही,
कई ऊर्जा आयी अस्तित्व में।
अनेक ऊर्जा पिंड ब्रह्माण्ड में बहने लगे,
कहीं ग्रह बने,
कहीं उल्का पिंड तो कहीं
नक्षत्रों का हुआ निर्माण।
कई क्रियाएं हुईं, बहुत से
विस्फोट व्
हुई कई प्रतिक्रियाएं।
धीरे -धीरे अस्तित्व में
आये जल, वायु, अग्नि,
पृथ्वी
और आसमान ,
व् एक सुन्दर और
जीवनदायिनी गृह - पृथ्वी
का हुआ निर्माण।
पहले जल फिर धरती,
फिर वायु, आकाश और
अग्नि के समावेश से
उनकी ऊर्जाओं ने किया
धरती पर जीवन का आह्वान।
एक से दूसरी जगह
भटकने लगी जीवंत ऊर्जा,
फिर प्रकृति ने स्थिरता दी ,
और तभी तो मानव
निर्मित हो सका।
पहले मिला बचपन,
हँसता हुआ जीवन ,
कोमलता से परिपूर्ण ,
द्वेष, बैर और हर तरह की
नकारात्मकता से दूर,
था सभी वस्तुओं से अनभिज्ञ ,
मात्र प्रेम और सौहार्द थे भरपूर।
प्रकृति और शिशु का
हुआ था तब संवाद ,
मैंने दिया है तुझे जीवन ,
बाल्यपन है तेरा
पहला उपहार।
ये सीख देगा तुझे
की आगे कैसे जीना है ,
होगा तेरा जीवन साकार।।
हर क्षण होगा वर्तमान
और तुझे
सदैव करना होगा उसका सम्मान।
शिशु बोलै आप हैं कौन ?
पूछता हूँ मैं आपसे ससम्मान,
मैं माँ हूँ तेरी , तू चाहे तो
मुझे समझ सकता है भगवान।
मैं रखूंगी सदैव तेरा ध्यान,
जिसके बदले में तुझे मात्र
करना होगा मेरा सम्मान।।
तुझे दे रही हूँ
एक हरा भरा संसार,
शुद्ध वायु और जल अपार,
और भी जीव हैं यहाँ,
तुझे करना होगा
उनसे भी प्यार।
सबके साथ मिलकर
तुझे सदैव
करना होगा
मेरे दिए उपहार
का सम्मान।
पर माँ, क्या सब होगा
सदैव एक समान ?
नहीं, बदलाव ही है सृष्टि का विधान,
तुझे स्वयं को बदलना
होगा उसके समान।
पर फिर मैं कैसे
कैसे रख पाऊंगा
स्वयं का ध्यान ??
चिंता न करो,
मैं हूँ तुम्हारी गुरु,
दूंगी तुम्हें
सम्पूर्ण जीवन का ज्ञान,
शिशु के चेहरे पर खिल
आयी थी
एक प्यारी सी मुस्कान।
नि: स्वार्थ कर्म का
पाठ सूर्य देव ने सिखाया,
अपने तेज़ के ज्ञान से
उसे अवगत कराया ,
जानते थे बच्चे में
आ सकता है अभिमान,
इसलिए साथ में ही
कर डाला
ग्रहण का गुणगान।
और इस तरह सीखा
उसने जग कल्याण ,
और वो भी करते हुए
छोटे -बड़े सबका सम्मान।
अविरल चलते जाना
जल देव ने सिखाया ,
व्
एक जगह रुक जाने
पर गंध का प्रभाव
भी उन्होंने ही सिखाया।
वायु से सीखा वेग, व
सीमाओं में रहकर चलना,
दृढ़ता व् धैर्य
धरती ने सिखाया।
अपनी ऊर्जा का सही उपयोग
कैसे करना है ?
ये पाठ अग्नि ने पढ़ाया।।
ऊपर देखा तो आसमान था,
व्यक्तित्व कितना
बड़ा हो सकता है
ये ज्ञान आकाश से पाया।
अब था वो पूरी तरह तैयार,
आने वाले पल को
देने के लिए अलंकार।
सब अच्छा चल रहा था ,
धीरे -धीरे बड़ा हो रहा था,
थोड़ा परिपक्व
हो चला था , बढ़ते समय
के साथ थोड़े-थोड़े
पाठ भूलने लगा था।
जानता नहीं था, समय भी है
प्रकृति का अनुपम उपहार।
इससे बढ़कर न है कोई गुरु,
यही करता है
जीवन का सच्चा
पाठ शुरू।।
है स्वयं में चुनौती
इसका प्रिय शिष्य होना ,
देता है सबसे
कठिन प्रश्न पत्र,
ये सदैव उसको थमा।
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अब देने पद रहे थे
उसे नए - नए इम्तिहान,
कभी निराश होता
तो प्रकृति माँ से
मिल आया करता,
और वो उसे याद दिला
दिया करतीं बचपन
में दिया सारा ज्ञान।
एक सकारात्मक
ऊर्जा का
होता था संचार,
जब -जब भी वो
अपनी माँ का
करता था विचार।
मिल जाया करता
उसे अपनी
हर समस्या का समाधान,
जब- जब भी वो
किया करता
प्रकृति का सम्मान।
अब ज़रा कुछ बन चुका था,
कई अविष्कार
भी कर लिए थे,
अपनी सुख सुविधा
का रखने लगा ,
प्रकृति से ज़्यादा ध्यान।
और धीरे- धीरे हूला
बैठा माँ का
दिया सारा ज्ञान।
उसको ही नुक्सान
पहुँचाने लगा ,
जो था कभी उसके लिए भगवान।
जल, वायु , पृथ्वी ,
अग्नि और आसमान ,
जिन्होंने दी थी कभी
उसके अस्तित्व
को पहचान, आज
वही उसके लिए
बन गए हैं अनजान।
वृक्ष काटने में तनिक
न हुआ
वो परेशान ,
जल और वायु को बना
डाला उसने नर्क सामान।
वायु के प्रदूषण ने छुपा
दिया था आकाश ,
और तभी तो वो भूल गया
करना अपने व्यक्तित्व का विकास।
क्रूरताओं की सभी
सीमाओं को लांघकर ,
स्वयं को ही समझने लगा भगवान।
तभी प्राकृतिक
आपदाओं ने दिखाया
उसे उसका वास्तविक स्थान।
जो अशांति वो फैला
आया था
प्रकृति में,
माँ ने उसे एक ही
झटके में कर
दिया था शांत।।
पैर लड़खड़ा
उठे थे उसके,
निर्बल पड़ गया था
उसका
अहंकार और सम्मान।
ऐसे पलों में अक्सर
आया करती है
माँ की याद , उसको भी
आया
अपनी माँ का ध्यान,
कुछ समय तक
उसने फिर किया
उसका सम्मान। ....
कुछ समय बाद ,
सब पहले जैसा था
भूल गया माँ का प्रभाव,
और बन बैठा
फिर से शैतान।
भूल गया सारा ज्ञान ,
पशु व् पक्षियों
को पहुंचाने लगा
और अधिक नुक्सान।
माँ कैसे सहन करती,
सिर्फ वही नहीं
बाकी सब भी थी
उसी की संतान।
इस बार माँ ने उसे
सबक सीखाने
की थी ठानी ,
एक सूक्ष्म जीव लेकर
आयीं सामने ,
जो सिखाएगा उसे
जीवन की कहानी।
एक सूक्ष्म जीव ने
आज दिखा दी है
मनुष्य को उसकी बिसात।
शायद ये जीव
ही है जो ले फिर
ले आए एक बार मनुष्य
और
प्रकृति को साथ।
जिनको अभी भी ये
बात नहीं है
समझ में आयी ,
तो भाई बचपन में
शैतानी करने पर
माँ कमरे में बंद कर
दिया करती थी।
ऐसी ही रूठी आज
प्रकृति माँ
दिखाई देती है।
उसने अपने बच्चों
को घर में बंद करके
कर दिया है स्वयं से दूर.
और
बाकी सभी जीव खिलखिला
उठे हैं भरपूर।।
बिना हमारी उपस्थिति
के और
अच्छी हो गयी है
प्रकृति की स्थिति।
ये बात हमे समझनी होगी,
हमसे प्रकृति नहीं,
प्रकृति से है हमारा अस्तित्व।
वैसे चिंता की कोई बात नहीं,
सब ठीक भी होगा जल्द ही।
वो क्या है न माँ अपने बच्चों से
ज़्यादा देर दूर नहीं रह सकती।
अब बच्चों की बारी है,
माँ को ये बताने की,
कि क्षमा करना माँ,
आपका दिया ज्ञान
भूल गए थे हम,
पर अब आपसे दूर रहकर
वो याद हो आया है हमें
अब हम फिर आपका आदर करेंगे,
सच है सदैव आदर करेंगे।