मैं रिस्पना नदी हूं।
मैं रिस्पना नदी हूं।
कभी इठलाती कभी बलखाती
मैं कभी मन मोहनी थी
देहरादून की जान कभी
मैं बहुत सोहनी थी।
स्वच्छ निर्मल जल मेरा
कलकल बहता रहता था
नदी के मेरे निनाद में
दून खोया रहता था।
दूर दूर तक फैली हरियाली
अजब गजब छटा बिखरी थीं
मेरे तट पर बच्चों की
हंसी ठिठोली रहती थी।
देहरादून की प्राण थी मैं
सबको जीवन देती थी
मेरे निर्मल जल को पीकर ही
सुबह दून की होती थी।
पर वक्त बीता रंग मेरा
अब बदरंग सा हो गया
मेरा वो अल्हड़ बांकपन
ना जाने अब कहां खो गया।
देह से मेरे अंतश तक
अब मैं बूढ़ी हो गई
नदी कभी कहलाती थी
अब कूड़े के ढेर में खो गई।
मैं मृतप्राय सा मरणासन्न
धारा अमृत की मेरी सूख गई
अपनों की बेरुखी से
पथराई सी आंखें मेरी हो गई।
दुर्गन्ध से भरी मेरी मृतकाया
बस आखिरी सांस अब बाकी है
दर्द की उठती हिलोरें संग
मैं आधुनिकता की मारी हूं।
सबकुछ छिना इस विकास में
मैं अनसुनी सी एक त्रासदी हूं
खुद पीड़ित है जलधारा मेरी
मैं भुलाई रिस्पना नदी हूं ।