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मैं लिखती हूँ

मैं लिखती हूँ

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बड़ी मुश्क़िल से
सीखा था मैंने लिखना,
शब्दों को गढ़ना
उसमें भाव डालना
भावों को शब्दों में ढाल
कविता बनाना ।

मुश्क़िल तो था
पर आखिर 
मैंने सीख लिया था
कविता ,लेख ,और
कहानी लिखना ।

लिखी अनेक
कविताऐं ,लेख
कहानियाँ।
लिखने लगी थी
बेहिसाब सुंदर।

वाह वाही होने लगी,
तारीफ़ें मिलने लगी।
अक्सर सुनती,
क्या ख़ूब लिखती हो।
मन फूला न समाता।

ठीक उस बच्चे 
की तरह,
जो खड़ा होना
सीखता है
और 
माँ की तालियों से
पुलकित हो 
चलने लगता है
और
चलते ही दौड़ना
सीख जाता है।
उसी बच्चे -सी 
पुलकित मैं 
लिखती जा रही थी।

लेकिन ये क्या ?
एक दिन मैंने सुना,
ये क्या लिखा है तुमने?
ऐसी कविता !
अपनों के ख़िलाफ।
फिर एक दिन
ये क्या है ?
ऐसा लेख
शासन और सत्ता
के विरोध में!
तुमने लिखा ?

नहीं ,
ऐसा लिखना ठीक नहीं।
अब मत लिखो।
धीरे -धीरे
वाहवाही आरोपों में
बदलने लगी,
लेखन गुनाह में ।

खीझ होने लगी,
फालतू लिखने से
तो न लिखना ही
उचित लगा।
लेकिन कैसे ?

जिस बालक ने 
एक बार
चलना सीख लिया हो,
क्या कभी उसे 
कहा जा सकता है 
कि ,मत चलो!
क्या यह संभव है 
कि वह न चलें !

ठीक वैसे ही 
असंभव था
मेरे लिऐ
न लिखना ।

सो आज भी 
मैं लिखती हूँ ।
वाहवाही नहीं 
आरोप और
दोष ही मिलते है।
फिर भी 
मैं लिखती हूँ ।

 


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