मैं जहाँ रहती हूँ
मैं जहाँ रहती हूँ
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जहाँ हार कर भी,
जीत का एहसास हो,
देश-विदेश घूमने से भी बेहतर,
लगे पूरी दुनिया है मेरे पास।
जब जग की समस्त ख़ुशियाँ,
यहाँ लगे,
है मेरे ही पास,
हर लम्हा,
लगने लगे खास।
जहाँ जन्म लिया,
और संपूर्ण जीवन जीया,
उसे चाह कर भी,
कैसे जाए भुला दिया?
जिसे मैं कहूँ,
अपना ‘घर',
क्या फ़र्क पड़ता है,
कोई कह दे इसे,
निकेतन, निवास, आलय या गृह अगर?
जहाँ जन्म से मृत्यु,
संपूर्ण जीवन बिताते हैं,
यहाँ रहने, और यहाँ के
लोगों(अपने परिवार) से कुछ कहने में,
हम बिलकुल नहीं हिचकिचाते है।
जहाँ हर सफलता के,
जश्न मनाए,
और प्रत्येक पराजय के लिए,
रोए है,
यहाँ कई नन्हें सदस्यों ने,
ख़ुशियाँ फैलाई,
तो कईओं को,
यहीं पर खोए है।
ऐसा मेरा घर है कितना प्यारा,
मेरी हर खुशी,
हर ग़म का राज़,
इसने संभाला है,
अपनी उस मज़बूत छत के नीचे,
मुझे पाला है।
अपनी छोटी-छोटी आँखों से,
मेरे हर रूप देखे हैं,
अपने अंदर,
मेरी ख़्वाइशें, आदतें, शौक,
खूबियाँ, कमज़ोरियाँ,
सब कुछ संचय करके,
जैसे मुझे ही समेटा है अपने भीतर,
यहाँ लगता है मुझे बहुत महफूज़ ,
ना कोई घबराहट, फ़िक्र, ग़म,
परेशानी या डर।
गर्व से कहूँ मैं इसे, अपना प्यारा घर!