मैं अग्नि हूँ
मैं अग्नि हूँ
आरम्भ हूँ मैं सभ्यता का,
अंत का पर्याय मैं,
मैं मनुज की खोज पहली,
कि अंतिम अध्याय मैं,
मैं रोशनी देता कभी तो,
रोशनी लेता भी हूँ,
ज़िन्दगी देता भी मैं,
और ज़िन्दगी लेता भी हूँ,
मैं दिए की लौ भी हूँ,
और दावानल भी मैं ही हूँ,
एक क्षणिक चिंगारी मैं,
विध्वंसकारी मैं ही हूँ,
पूरा पुरातन काल से,
यज्ञ वेदी में मैं सज रहा,
प्रार्थनाएं सुन मनुज की,
आहुतियां कई ले रहा,
मैं ही तो हूँ वो कड़ी,
देव मनुज के बीच की,
हर सदी हर काल में,
अम्बर धरा के बीच की,
जीव का आरंभ मुझसे,
अंत भी मुझमें ही है,
मैं धरा के गर्भ में,
और ये धरा मुझमें ही है,
मैं वेद के मंत्रों में हूँ,
मानव की पहली प्रार्थना,
जीवन की तृष्णा मैं ही हूँ,
कि मृत्यु की मैं साधना,
मैं तपिश हूँ गर्म हूँ,
ठंडा हुआ तो राख हूँ,
आदि मैं ही अंत मैं,
जलता रहूँ मैं आग हूँ।।