Shraddhanjali Shukla
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मानवता धूमिल हुई,शेष रहा बस स्वार्थ।
अपना अपना सब करे,ढहे रोज परमार्थ।
ढहे रोज परमार्थ,चली कलयुगी वायु है।
पाप पुण्य भय खत्म,बदल गई जलवायु है।
वीर कहाँ है शेष,दिखती रोज कायरता।
ली लालच ने छीन,अपनी श्रेष्ठ मानवता।
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