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Sri Sri Mishra

Others

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Sri Sri Mishra

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लुकाछिपी

लुकाछिपी

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 संरेख धरा पर पंक्तिबद्ध होती कभी मदमस्त हटती..

बादलों की ओट से रवि की किरणें लुकाछुपी जो करती..

वह दूब पर मानिंद मोती सी बूंँद से हो आकर्षित..

कर रही वार्ता स्वर्ण स्वर्ण सी चमकती हो अनुपम वर्णित..

प्रकृति के नज़ारे संग कर रही वो मधुर आलिंगन..

अठखेलियांँ क्रीड़ा कर रहे वो पंछी हो मस्त मगन..

कल- कल कर रही तटिनी की चंचल तरंगिनी हिलोरे...

मन मयूर नर्तक हो उठा देख मंद- मंद पवन की शोरें..

खेल चुकी है वह किरणें लुका छुपी क्रीड़ा अठखेलियांँ..

हो रही आच्छादित नभ पटल से सरर- सरर मस्त..

अब भास्कर संग लिए चंचल सी वह लालिमा..

दबी आहट से हो रही मध्यम- मध्यम अस्त....

महक उठी वह सोंधी सी मिट्टी पाकर सुनहरा स्पर्श..

कह रही 'श्री' की लेखनी है यह अद्भुत चक्षु का सुंदर दर्श।



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