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लो फिर उन्होने

लो फिर उन्होने

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लो फिर उन्होने

वायलिन के तारों से दस्तक दी है

कुछ स्वरों ने मन की परतें उधेड़ी हैं।


जब भी चलते हैं इन राहों पर

लगता है कुछ छूट सा जाता है

जोड़ते हैं हर बार... पर लगता है,

हौले से वहाँ कुछ चटक जाता है।


कुछ स्वरों ने मन की परतें उधेड़ी हैं

हथेलियाँ अंजुरी बन समेटती हैं

सब खामोशियाँ, आदान- प्रदान

और सम्मोहन बंद होती पलकों से ।


लो फिर

फिर प्रतिध्वनि ने दस्तक दी है

स्वरों ने मन की परतें उधेड़ी हैं

उन्होंनें कोई गूँज फिर

सुन तो नहीं ली क्या .. !



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