*क्यूँ*
*क्यूँ*
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कर रहा क्यूँ आदमी अभिमान है !
जब ठिकाना आखिरी शमशान है !!
चार दिन की चाँदनी है जब यहाँ !
बन रहा फ़िर आज क्यूँ शैतान है !!
आजकल इंसान ही क्यूँ गुम हुआ !
सो गया सा अब लगे भगवान है !!
फूल सा मन दे रहा है ये सदा !
चूम लेंगे मंजिलों को भान है !!
चाह धन की है बसी हर एक मन !
हो चला क्यूँ सच से भी अन्जान है !!
आग में ये नफ़रतों की जल रहा !
प्रीत का तो बस रहा अरमान है !!