क्या सचमुच ऐसा है..!
क्या सचमुच ऐसा है..!
लोग कहते हैं
मेरे भाव मलिन हो गये हैं..
तुम्ही बताओ
क्या सचमुच ऐसा ही है..?
मुझमें कुछ समझ नहीं
नैतिक-अनैतिक..
पाप-पुण्य..
भला-बुरा..
कुछ भी..
कुछ भी समझ नहीं आता
क्योंकि...
मेरी सोच
तुम से ही शुरु
और
तुम पर ही ख़तम होती है
हर रास्ता तुम पर ही रुक जाता है..!
ये कोई कल्पना तो नहीं..?
एक बोझ तो है
सवाल करके स्वयं
हर बार उलझी हूँ
जवाब देकर
उसको सुलझा दो ना..!
कहो तो मैं ही कहीं गुम हो जाऊँ..?
वहाँ जहाँ से
कोई ढूँढ ना पाए.. ;
संभव है
एकांत पाकर
मेरे अंदर की मलिनता
मुझे नज़र आ जाए...??
