कुछ खामोशियाँ
कुछ खामोशियाँ
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कुछ ख़ामोशियाँ
पलती हैं मेरे भीतर
कभी बतियाना बंद नहीं करती
इन्हीं के होने से
बस्ती है वीरानों में
बड़े करीने से लगाती हैं ये पेंच
गहरी पड़ी दरारों में
वरना इन दरारों से
रीसते कुछ ग़म
छलकते कुछ आँसू
दरकती कई चीख़ें
और सिसकती बेचैनियाँ
ज़माने के बाज़ार में
कोई मोल नहीं इनका
यहाँ बिकने को चाहिए
एक पथरीली मुस्कान
और एक बनावटी हँसी
तो लीजिए...
साहिबान, मेहरबान, क़द्रदान!
हमने भी लगा लिया
इक चोर बाज़ार
इन साज़-ओ-सामानों का
कहिए, क्या दाम लगाईएगा
'अहमक' दिल के छालों का?
