कोई अपनी सी
कोई अपनी सी
जिंदगी की भाग दौड़ में,
हम हो जाते है खुद से ही खफ़ा।
भूल जाते है हम उनको,
जो दिखते है कई दफ़ा।
राहों पर चलते चलते हम ,
कुछ ऐसा जान जाते है।
सफर में इतना रम जाते है ,
की मंज़िल ही भूल जाते है।
नाम से क्या हमको ,
जब दोस्ती यूँ ही मिल जाती है।
लफ्ज़ वो बातें बोल न पाते ,
जो उनकी आँखें कह जाती है।
कतराते है अंजानों से ,
पर पहचान बनाकर क्या मतलब
कोई हमें न बता सका की ,
ख़ुशियाँ कैसे आती है।
रात रात भर जाग रहे थे ,
जानने को खुद के बारे में।
तारे गिन कर समय गंवाया ,
जब थे दूसरों के सहारे में।
पहचाना अजनबियों को ,
तब अपनों को भी जान लिया।
साथ रहे जब तक उनके ,
हमने खुद को भी पहचान लिया।
शायद वो दोबारा मिल न पाए ,
उनकी बातें थी गढ़नी सी।
फिर भी वह ये बता गयी की ,
थी वो कोई अपनी सी।
