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Ashish Anand Arya

Others

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Ashish Anand Arya

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कल की पतंगें ...

कल की पतंगें ...

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क्योंकि... अब पतंगें नहीं उड़तीं... 


पतंगें तो पूरा दिन उड़ती थीं

पर शाम होते ही

हवा जैसे बिलकुल बदल जाती

रंग बिलकुल चहक जाते,

इधर धूप जरा ठंडी होती

रौनक जैसे एकाएक गरम हो उठती...

दिन भर खाली पतंगें लड़ती थीं

शाम होते-होते पतंगों की आड़ में

नजरें लड़ने लगतीं,

एक से बढ़कर एक पेंच

दिलों के जाने कितनी तरह के दाँव-पेंच

कलेजे पर तीर

और इनामी सुकून के अजब-गज़ब खेंच...


पूरी-पूरी रात चला करता था छतों पर

हमउम्र सब अपनों के बीच

नींद के बेमिसाल बहानों का दौर...

बस तकनीक की ज़रा एक करवट क्या आयी

मुहब्बत के सारे कारखाने ठप्प हो गये,

छतों पर सधे गमले

जिन्हें अक्सर किसी न किसी बहाने से

सींच आया करते थे बच्चे

उनकी हरी खूबसूरती निहार

खुश होने वाले दादा-दादी भी

अब मकानों की उदास दीवारों में कैद-बंद हो गये,

अब केवल मोबाइल बोलते हैं

दोस्ती, रिश्ते, त्योहार, खुशी के मौके

सब बस whatsapp के मैसेजेस

और facebook wall के हौसलों में

खामोश बेबस हो गये,


अब तो कोई अपने पड़ोसी को 

नाम और शक्ल से नहीं जानता...

दिखावट के रंगों से सजे

मोबाइल और कपड़ों के ब्रांड से

आज इंसान इंसान को पहचानता,

कल जो अजय, विजय के लड़के होते थे

आज एप्पल, गूगल प्लस मोबाइल वाले लड़के होते हैं

और इसी खोखली बुनियादों वाली दुनिया में

अपनों से दूर रची-बुनी बगिया में

शोषण के रंग बड़े अपार होते हैं

यहाँ तो बलात्कारों के भी प्रकार होते हैं

और असली गुनाहगार कोई नहीं होता

क्योंकि किसी को किसी की पहचान नहीं होती

क्योंकि अब पतंगें नहीं उड़तीं

क्योंकि अब दुनिया को पहचानना सिखाने वाली

हमारे इर्द-गिर्द अपनों की दुनिया ही नहीं होती!



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