खुद से मुलाक़ात
खुद से मुलाक़ात
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हाथों में कलम लिये जाने क्या सोचते हैं
चाहते तो हैं कि उतार दें मन की तस्वीर कागज़ पे
पर शब्द हमसे कतराते हैं
हम अपने मन को समझने से डरते हैं
झूठे दिलासों के पीछे छुपाई हैं कुछ बातें
बातों के शोर में छुपायी हैं सिसकियों की आवाज़ें
उन दिलासों में, उस शोर में खुद को खो चुके हैं
अब खुद से मिल नहीं पाते, हम जाने कहाँ कहाँ भटकते हैं
हाथों में कलम लिये जाने क्या सोचते हैं
कभी किसी मोड़ पे फिर खुद से मुलाक़ात होगी
खुद को माफ़ कर पाये तो फिर से शुरुआत होगी
इसी उम्मीद के संग हर क़दम चलते हैं
हाथों में कलम लिये जाने क्या सोचते हैं
