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निखिल कुमार अंजान

Others

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निखिल कुमार अंजान

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जमाने की आग बुझाते बुझाते.....

जमाने की आग बुझाते बुझाते.....

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जमाने की आग बुझाते बुझाते

कब खुद के हाथ जल गए

निकले थे घर से कमाने को

लेकिन रस्ते से फिसल गए

हर मोड़ पर खड़ा है परेशां इंसा

देख उनके दर्द को पिघल गए और

अपने घर का दिया जलाना भूल गए

बेहिसाब दौड़ता रहा इन रस्तों पर

जाने कितने दिन कितने साल निकल गए

सिला क्या मिला मुझे भला इसका

उल्टा खुद के ही सवालों मे उलझ गए

कहते थे मुंजिद मुझको अपना

अब वो हर शख्स नजर चुराता है 

दूर से ही मुँह फेर निकल जाता है

खैर उसकी परवाह मुझको ना है

अपने घर लौटने को जी चाहता है

देख अपने मकां को तकता रह गया

इतनी आग बुझाई दूजे के झोपड़े की

कब अपना राख मे तब्दील हुआ और 

मे धुँए खड़ा अपने हाथ मलता रह गया.......


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