Archana kochar Sugandha

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इत्र की शीशी

इत्र की शीशी

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बेटी विदा होकर ससुराल चली गई 

घर के हर कोने में 

अहसासों के आभास छोड़ गई ।


अलमारी में महक रही थी 

उसकी पसंदीदा इत्र की शीशी।


बिखेर दी मैंने 

उसकी दो-चार बूंदें

घर के कोने में 

महक उठी उसकी 

चंचल, चपल, चुलबुली यादें।


पापा की परी, नन्ही सी गुड़िया रानी 

कब हो गई बड़ी सयानी ।


अभी भी अलमारी में खेल रहे हैं 

उसके छोटे-छोटे खिलौने ।


कानों में गूंज रही है 

उसकी मां-पप्पा की 

तोतली किलकारियां ।


छम-छम बजते हाथों के कंगन 

पायल के घुंघरुओं की झंकार।


दीवारों पर उसके हाथों की छाप 

कंजक भवानी में धुलते उसके पाद ।


उसका घर के कोनों में रूठकर छुपना 

हमारा कान पकड़कर उसे मनाना ।


उसका खिल-खिलाकर हंसना 

नाच-गाकर रूठने-मनाने का जश्न मनाना।


मान-मनुहार में बेमतलब बाजार चलना

कपड़ा-जूता-चप्पल संग मैचिंग 

हार-श्रृंगार के लिए मचलना।


फ्रॉक में मचलती नन्ही गुड़िया रानी 

शर्म-ओ-हया में जिम्मेदारियों की 

ओढ़नी ओढ़कर विदा हो गई।


उस समय पराए हो गए थे 

वो भावनाओं से जुड़े 

अपनेपन के जज्बात 

जब बिटिया इत्र की शीशी 

साथ ले जाने की 

इजाजत मांग रही थी।



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