हसरत
हसरत


हाँ उसके चेहरे पर सलवटें है
ज़माने की
वह जिसने बनाया है अपना
एक शिखर
उस मुक़ाम से ऊपर की ख़ाली
जगह को
अब वह बड़ी हसरतों के साथ
देखता है
और बिठाना चाहता है वहाँ अपनी
प्रतिछाया को
उसे जिसे ज़माने ने “बेटा” नाम
दिया है
अपनी उस एक ख़्वाहिश की
पूर्ति में
कई बार इस क़दर मायूस हुआ
है वह
की अपने ही बनाए ऊँचे शिखर से
कहीं नीचे
टिकानी पड़ी है उसे अपनी बेकस
मायूस नज़र
उसकी उस मायूसी में फिर भी
कभी-कभी
आशाओं की कुछ रौशन लकीरें
दिखती है
तब जब वह अपनी प्रतिछायाओं में
निर्माण की
गंभीर कोशिशों का एक गहरा स्पंदन
देखता है
वो एक पल सचमुच कितना अद्भुत
होता है
जब निराशा के उस गहन कुहासे को
आशा की
छोटी सी चमक अपने वज़ूद से ढक
देती है
शायद इसी चमक को ही तो जीवन
कहते है
क्या उस मायूस पिता की प्रतिछाया
यह चमक
अपने आप में जज़्ब करने का हौसला
दिखा पाएगी ?