‘वक़्त का करिश्मा’
‘वक़्त का करिश्मा’
वक़्त ने यारों अजब करिश्मा सा कर दिखाया
एक़ बार फिर मुझे मेरे बचपन से जा मिलाया
वो जिनके संग कभी खेलते थे लँगड़ी-कबड्डी
उन्ही दोस्तों को फिर वो मेरे रूबरू ले आया
वक़्त की मसरुफ़ियत में जो खो गए थे कहीं
जीवन की दोपहर में उन्हें वो फिरसे ढूँढ लाया
वक़्त ने यारों ये अजब करिश्मा कर दिखाया
आह वो महक बचपन की वो आलम अजब सा
वो दोस्तों से मिलने का अन्दाज़ कुछ अलग सा
वो बेफ़िक्री भरे मस्त दिन वो बेफ़िक्री भरी रातें
और वो अल्हड़ सी उम्र की बेफ़ज़ूल नादान बातें
ख़ुशी दोस्तों से मिलने की और बिछड़ने का ग़म
क्यों बेवजह सी छोटी बातों पे उनसे लड़ते थे हम
वो भारी बस्ते ढोकर संग उनके स्कूल को जाना
और टीचर से होमवर्क ना करने का झूठा बहाना
उनका वो हमें बेंच पर खड़े होने की सज़ा सुनाना
उस पर दोस
्तों का हमको वो हँस हँसकर चिढ़ाना
वो आहत मन के शर्मिंदगी भरे आँसुओं का गिरना
और दोस्तों से फिर वो जादू भरी झप्पी का मिलना
उनकी पक्की दोस्ती के वादे पर हमारा यूँ खिलना
है मुश्किल बहुत कहीं अब ऐसी दोस्ती का मिलना
हाय वो मज़े से लंच में उनके डिब्बों से ख़ाना खाना
और उनसे अपने डिब्बों का वो बोरिंग खाना छिपाना
जब भी चलती क्लास में हम ले लेते थे एक झपकी
जगा ही देते थे वो हमको काँधे पर देके एक थपकी
है ऐसी कितनी ही सुनहरी यादें उन गुज़रे पलों की
कैसे भुला दे कोई वो मीठी भोली बातें बचपन की
सहारे से जिनके काटीं हैं हमने टेढ़ी राहें जीवन की
है आफ़रीन मेरे दोस्तों तुम्हारी वो दोस्ती बेग़रज़ सी
के ढलती उम्र के मौसम जब भी तुमसे मिलते हैं हम
क़सम से वो प्यारा सा बचपन फिर से जी लेतें है हम