हक़
हक़
ना खुदा मिला, ना खुदा के बन्दे मिले,
मुर्दों से बदतर कुछ ज़िन्दे मिले,
आज़ाद नाम था जिस शहर मैं गुज़रा,
हर घर में वहां कैद कुछ परिंदे मिले,
दिलों में आग थी शायद किसी बात को लेकर,
हाँ मगर चूल्हे सभी के ठंडे मिले,
सियासी फूल थे बरसे वहां सब लोग छलनी थे,
मुंह पे इंक़लाब हाथों में झंडे मिले,
पांव तले जो पीस रहे थे, थे सब कुचले,
हुक्मरान उन्हें भी शायद कुछ अंधे मिले,
हुक्म हुआ है यूं कि कोई खुल्ला घूमे नहीं,
रस्सी के दोनों सिरे भी आपस में बंधे मिले,
सच को किसी ने क्यों चिल्लाया नहीं पर,
हर तरफ़ मतलबी झूंठ के धंधे मिले,
जो आया मांगने यहां पर हक़ अपना,
कुछ ना मिला जनाब, चार कंधे मिले।
