हम
हम
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मैं,
मैं सुरेन्द्र कुमार सिंह भारतीय,
अक्सर पा लेता हूँ
अपनी अतीत की ठंढी राख में
एक चिन्गारी
फिर खो जाता हूँ
उसके सौंदर्य में,
बेसुध,चैतन्य
सोचता ही रह जाता हूँ
कहाँ लिये चलूं
इस शक्ति आग को।
दुनिया भी अजीब है
डरती है आग से
फिर तलाशती है आग।
आधुनिक समाज में
मनुष्य बनने की चाह
एक आग
चकचौन्ध सी
तुम्हें अच्छी लगी
जरूरत लगी
बहुत बहुत धन्यवाद।
पर जिज्ञासा तो रहती है न
उत्तरों के समुन्दर में
प्रश्न कहाँ से आ रहे हैं
किसके हैं?
तुम्हारे हों तो आऊं
इसलिये कि
आदमी के पास
सवाल नहीं होने चाहिये
उत्तर जो है वो
संशय से दूर,
जला सकता है वो
प्रश्नों को
अपनी ही राख में
छिपी हुई आग से।
