हारिल की लकड़ी
हारिल की लकड़ी
खिड़की की आंखों में जबसे, उड़ती धूल पड़ी ।
सम्मुख के दृश्यों की तबसे, हालत है बिगड़ी ।।
पछुआ थी चालाक बहुत, आई पहुनाई ।
पुरवाई भोली-भाली कुछ समझ न पाई ।
पछुआ ने पुरवा की ले ली, सिर की भी पगड़ी...।।
कुदरत के सारे विभाग, जबसे हैं भ्रष्ट हुए ।
हवा और पानी के दामों, ने आकाश छुए ।
सूरज के जलने बुझने की, फीस बहुत तगड़ी ...।।
तोता-मैना के सम्बन्धों में भी गाँठ पड़ी ।
कौवे के कहने पर मैना घर में खूब लड़ी ।
हारिल की ही बैरन है अब, हारिल की लकड़ी... ।।
