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Akshat Shahi

Others

5.0  

Akshat Shahi

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गुबार

गुबार

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काले बादलों का गुबार ज़हरीला था

इस बात का इल्म उनको भी था 

बस वो स्वीकार नहीं सकते थे 

उनको माँ का फ़र्ज़ निभाना था।


क्षितिज को देखते चलते जा रहे थे

उनको असफल होने का मलाल था

अपनी सी पहचान का ख्वाब था

वो अधूरी इच्छाओं का गुबार था।


पैरों तले अब जमीन भी बांझ थी

सूखे ताल को मेघों का इंतज़ार था

आसमां मटमैला चाँद भी फरार था

नशा मलकियत का अब भी बरकार था।


अचानक यूँ हुआ सब रुक गया था

हवा के ज़हर से दम घुट गया था

चल पाना भी अब मुश्किल था

उस पल में समय भी रुक गया था।


सुना है ऐसा कुछ पहले भी हुआ था

पर जब धुआँ हटा नए फूल खिले थे

जीवन को नया वरदान मिला था

बस पहली गलती को ही माफ़ किया था।


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