ग़ज़ल
ग़ज़ल
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इश्क़ भी मुख़्तसर ही रहा
हां वही दर्द सर ही रहा
मंजिलों का पता ही नहीं
किस्मतों में सफर ही रहा
मर्ज़ ए इश्क़ बढ़ता गया
हर असर बेअसर ही रहा
साथ में है परिंदे सभी
फूटता तो बशर ही रहा
है ख़बर इश्क़ की सबको ही
औऱ मैं बेखबर ही रहा।