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कवि धरम सिंह मालवीय

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कवि धरम सिंह मालवीय

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ग़ज़ल

ग़ज़ल

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इश्क़ भी मुख़्तसर ही रहा

हां वही दर्द सर ही रहा


मंजिलों का पता ही नहीं

किस्मतों में सफर ही रहा


मर्ज़ ए इश्क़ बढ़ता गया

हर असर बेअसर ही रहा


साथ में है परिंदे सभी

फूटता तो बशर ही रहा


है ख़बर इश्क़ की सबको ही

औऱ मैं बेखबर ही रहा।


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