Ghazal No.8 कैसे समझाऊँ मौजिब इस गुनाह का तुझे
Ghazal No.8 कैसे समझाऊँ मौजिब इस गुनाह का तुझे
फ़क़त तेरे तसव्वुर के साथ ज़िन्दगी अब जी नहीं जाती
दवा के नाम पर ये ज़हर की शीशी अब पी नहीं जाती
देखकर ना-हमवारी-ओ-हक़-तलफ़ी इस जहाँ में
ऐ ख़ुदा तेरी इबादत अब हमसे की नहीं जाती
काट के जँगल जो बसाये थे शहर अब उनमें
खुल के साँस किसी से ली नहीं जाती
खौफ-ए-ख़ुदा से एक दिन बदलेगी दुनिया
ये झूठी तसल्ली हमसे किसी को दी नहीं जाती
ख़ूगर हो चुका हूँ यूँ मुनाफ़िक़ दोस्तों का कि
अब आईने से दोस्ती हमसे की नहीं जाती
कैसे समझाऊँ मौजिब इस गुनाह का तुझे ऐ ज़ाहिद
मोहब्बत बस हो जाती है की नहीं जाती
तेरी ख़ता नहीं मेरी हस्ती के बिखरने में
अक्ल से अदालत-ए-दिल में ये गवाही दी नहीं जाती
तलबग़ार तेरी रूह का हूँ जिस्म का नहीं
लम्बी दूरी यूँ लम्हों में तय की नहीं जाती
साक़ी-ए-दुनिया ने इस कदर पिलाएँ हैं ख़ालिस ग़मों के जाम
कि पानी मिलाके शराब अब हमसे पी नहीं जाती
दरिया से निकालकर छिड़कता हो माही पर जैसे कोई पानी
यूँ कतरा कतरा ज़िंदगी अब हमसे जी नहीं जाती
तार तार हो गयी जो क़बा-ए-मासूमियत हकीकत-ए-दुनिया की आग से
'प्रकाश' वो पैरहन दुबारा किसी से सी नहीं जाती।