गांव की गलियों में घूमता मन
गांव की गलियों में घूमता मन
गांव की गलियों में नित घूमता मन,
दम घोंटू शहरी जिंदगी से अब हुई अनबन।
रहने को सपनों के शहर में छोड़ दिया गांव,
वो लहलहाते खेत और पीपल की शीतल छांव।
वह छांंव जो करती थी मन को तृप्त,
ख्वाइशों ने कर दिया अब गांवों को रिक्त।
वह गलियों से जाते खेत और खलिहान,
अब बंद है जिंदगी लेकर नाम फ्लैट व मकान।
शहर के घुटते दम में घायल मन का परिंदा,
बस गांव में ही बची है आत्मा अभी जिंदा।
जैसी झुलसती धूप बूंदों से मिलने को बेकरार,
छोड़ शहर की गलियां मन गांव जाने को तैयार।
वह सूखते कुए और बूढ़ी होती निगाहें,
इंतजार करती गलियां गांव की खोले अपनी बाहें।
फैली माटी की सुगंध करती मन हर्षित,
देख हरियाली खेतों की हृदय होता आनंदित।
यहां प्रदूषण रहित स्वास्थ्य है निहित,
गलियों का कण-कण है प्राण प्यार से संतृप्त।
शहर छोड़े भागे मन पाके प्यार की बरसात,
वो सोंधी खुशबू वाली गांव की एक रात।
गलियां गांव की लगाए है मन का मेला,
भागते शहर के शोर में है हर कोई अकेला।
भले गांव चला शहर की ओर होने परिवर्तित,
ना भूले संस्कृति पहले इसे ही करें विकसित।