द्वन्द
द्वन्द


सूर्य-चंद्र कब संग दिखते है,
दिख भी जाए तो कब,
इनके फासले मिटते है।
दुर्लभ प्रेम-विस्तार सदियों में होते है,
जिनके साक्ष्य सूर्य-चन्द्र को ही प्राप्त होते है।
और फिर सहस्त्राब्दियों तक
तारीख़ से बयान होते है।
प्रेम की पूर्णता भी
कब संयोग की दास है,
विरही राधा-कृष्ण की मूर्तियों में,
आज भी आस्था का वास है।
प्रेम तो विरह है वेदना है,
अद्वैत की सम्पूर्णता और
मानव मन की सुन्दर प्रेरणा है।
सूर्य-चंद्र में हुआ कब मेल है,
इनकी तो समकक्षता भी
अमावस्य-पूर्णिमा में झूलता ग्रहण है।
प्रेम भी बिम्ब आच्छादित
संयोग-वियोग का अदभुत मेल है।
सदियों ही से प्रेम पे,
कवियों ने लिखे बहुत से छन्द है,
किन्तु यथार्थ-भूमि पे ,
प्रेम और सांसारिकता में सदा ही से द्वन्द है।
किन्तु इतने पर भी,
ख़ूबसूरती देखिए इस प्रेम की,
कि ये सदा ही से
निश्छल-निष्कंटक-निर्द्वन्द है।