दूसरी पहचान
दूसरी पहचान

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जरूरी नहीं ,
औरत हूँ, तो हर वक्त ,
मेरे हाथ में झाडू ही रहे।
जरूरी नहीं ,
औरत हूँ, तो हर पल,
मेरा रसोई में ही गुज़रे।
जरूरी नहीं ,
औरत हूँ, तो ताउम्र,
मैं बरतन ही मांजती रहूँ ।
जरूरी नहीं ,
औरत हूँ, तो सेवा ही,
मेरा धर्म, कर्म हो
जरूरी नहीं ,
औरत हूँ, तो बगैर
शिकायत,
मैं, उसकी मर्ज़ी से
हम बिस्तर होते रहूँ।
आखिर मैं भी तो इन्सान हूँ,
क्या इक औरत के बगैर,
मेरी दूसरी पहचान
हो नहीं सकती?