दृष्टिकोण
दृष्टिकोण


सुरमई सी सांझ में गगन ,
धरा से कर रहा था आलिंगन ।
अस्तगत सूरज शिथिल हो पुनः आने का वादा कर ,
अपनी किरणों को समेट चला था सुस्ताने ।
घोर अंधेरे में जीवन संभाले रात भर चलती रही धरा
मंद मंद बहती रही पवन और प्यार
बरसाता रहा गगन ।
टिमटिमाते तारों के बीच मुस्कुराता
बारिक सा चांद तो अभी तो आया था
फिर गया कहाँ?
टूटा था धरा का भ्रम,
व्यतिथ हो बोल पड़ी अम्बर से ;
चांद -सूरज और तारे सभी छुपते और निकलते हैं।
अनवरत चलने की नियति ,
नहीं ये मुझसे ना अब होगा ।
मुस्कुरा कर धीरे से बोला गगन  
;,
तुम क्या जानो अपना मोल ?
तुम्हारी मिट्टी है बड़ी अनमोल,
सुई के नोक बराबर तुम्हारे अस्तित्व; के लिए मर मिटते हैं लोग ।
कभी मेरा दर्द समझो तो मै बोलूं,
मेरे हिस्से में हैं आते सुराख करने के लिए तबीयत से उछाले हुए पत्थर ।
तभी कांधे पर से अंधेरों का बोझ उतार,
भोर आया नए उजालों के साथ;
प्रातः बेला में प्रार्थना में उठे हाथों को देख झेंप उठा गगन ।
एक नई समझ और सोच के साथ,
अपनी -अपनी पीङा को भूल
पुनः एक-दूसरे का कर आलिंगन
चल पड़े उत्साह में भरकर
बुला रहा था उन्हें उनका कर्म पथ ।