दर्प
दर्प
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दर्द आ जाए जीवन में,
तब वह कलुषित हो जाता है।
स्वयं का चेहरा भी ,
धीरे-धीरे धूमिल हो जाता है ।
दर्प कर क्या मिलेगा,
दोषों से परिपूर्ण होगा।
पर हितैषी कैसे बनेगा,
जब खुद को महान समझेगा ।
दर्प लेकर कभी न चलना,
स्नेह के बीज उगाना ।
पर दोषों को भी तुम ,
मुस्कुराकर भुलाना।
दर्प कर किसी को,
क्या कभी सम्मान मिला।
दूसरों के दुखों को दूर कर,
जग में नाम मिला।
