धरा तेरे रूप अनेक
धरा तेरे रूप अनेक
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"वसुंधरा", हे जगत जननी! तुम्हें मेरा प्रणाम
"पृथ्वी" माता तुमसे ही है सुबह, तुमसे ही शाम
"धरित्री" तुमने ही इस जग का भार संभाला है
"अचला" हो तुम, तुमसे बड़ा न कोई हमारा रखवाला है
"रत्नगर्भा", तुमने ही सारे रत्नों को संजोया है
"वसुधा", हमें बचाने के क्रम में तुमने खुद को खोया है
"भूमि" में ही किसान अनाज उत्पन्न करता है
"धरती" को सोना कर हमारा पेट भरता है
"धरा" तुम सर्वत्र व्याप्त, तुम्हारे अनेक रूप हैं
"उर्वी" तुम हमारे लिए हो ऐसे, जैसे कोई भूप है