ढूंढ ही लूँगी
ढूंढ ही लूँगी
आदिकाल से मानव ने
तुम्हें इस धरा पर बुलाने के लिए
न जाने कितने चक्रव्यूह रचे
तुम अभिमन्यु नहीं थे ईश्वर
जो मानव द्वारा बुने हुए
व्यूह रचना में फंस जाते
अपनी ही बनाई दुनिया की
हर चाल भांपने में माहिर थे
कितने जतन किए मानव ने
कितनी सिद्धियां हासिल की
जीवन का आनंद छोड़
निसर्ग सौंदर्य का रसपान छोड़
कहाँ कहाँ तो भटकता रहा यह मानव
तुम्हारे लिए सर्वश्रेष्ठ आसन
सर्वश्रेष्ठ दिशा
सर्वश्रेष्ठ नेवेद्य
सुगंधित वातावरण
पवित्र परिवेश
बार बार मनुहार
विनम्र अनुनय निवेदन
अनेकानेक श्लोकों की रचना
तुम नह
ीं आये
तब मेरे बुलाने से
क्यों आओगे प्रभु
कुछ भी तो नहीं है मेरे पास
न तप न बल न हठ न योग न शक्ति न भक्ति
अब तो दुनियादार भी हो चुकी हूँ
मासूम अल्हड़ बालहठ
भी तो नहीं है मेरे पास
तंत्र मंत्र यंत्र का चक्रव्यूह भी नहीं है
कभी चिड़ियों की उड़ान में
कभी पवन की मंथर गति में
कभी मंदिर में बजते संगीत में
कभी रोटी सेंकती चूड़ी की खनक में
तो कभी खेतों में हल चलाते हाथों में
तुम्हें ढूंढ लूँगी
अपनी बनाई दुनिया छोड़ कर
जाओगे भी कहाँ!
मेरे साथ साथ ही रचे बसे हो
आश्वस्त हूँ
राह चलते
यू ही तुम्हें ढूंढ ही लूँगी।