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विनोद महर्षि'अप्रिय'

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विनोद महर्षि'अप्रिय'

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ढहती कुर्सी

ढहती कुर्सी

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कुर्सी के इस खेल ने खाई चोट

नहीं बिके नोट के बदले वोट।

हो गया बंटाधार लोकतंत्र में

धरी रही सहानुभति की ओट।

कोई कहता कुछ कोई उछले

कही रैली तो कहीं जुलूस

कुछ को ताने कसकर मारे

झूट को जनता कुर्सी से उतारे

जन जन का मन मानस अब

जाग गया स्वाभिमान हमारा

करारे तमाचे दे मारे है उनको

जीत गया है लोकतंत्र हमारा।

वो समय तो है अब बीत गया

वोट बैंक तेरा अब रीत गया

देश प्रेम है सर्वोपरि समझ तू

जन का मन सब समझ गया।

कीचड़ तुम सबने फैला दिया

देश को तुमने खूब लूट लिया

हुई सीमा आतंकित बहुत हमारी

मत की ताकत ने तुम्हे कूट दिया।

गिरती कुर्सी अब तेरा ही कर्म है

देख जो भूल गया तू वो धर्म है

गर अभिमान वंश का तू पालेगा

हर बार इस जन मत से तू हारेगा।

किए तूने घोटाले किया अभिमान

बोल कब बढ़ाया तूने देश का मान

तू तो दर्प में पागल था ही नाकारा

तभी तो जनता ने नहीं स्वीकारा।।

नोट लेकर तो तूने प्रत्यासी उतारे

खा गए मात सिपहसालार तुम्हारे

जनता नहीं भोली अब जागृत है

अपने घर से राजकुमार अब हारे।

तेरी नाकामी नहीं यह तेरे इरादे थे

पूरे नहीं हुए किये जो तुमने वादे थे

फिर क्यों करता कोई स्वीकार तुम्हे

नीचता तेरी से नही मिला प्यार तुम्हे।

दहशत नक्सल वंशवाद, पनपाया

भरी जेब तेरी जनता ने क्या पाया

बेटियां ना सुरक्षित रोज मिलते घाव

कर्म ना करे तो क्यो कुर्सी का चाव।

गिर गई तेरी दीवार ढह गया किला

यह सबक जनता का जो तुझे मिला

मंथन करना अब तू क्यो हुआ ऐसा

कुर्सी का सुख तुझे क्यों नहीं मिला।।


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