चंद लम्हे
चंद लम्हे
चंद लम्हे बरसों का तजुर्बा
पर ये लम्हें हैं किसके पास ?
न बच्चों के पास न बड़ों के पास।
आजकल ये कुर्सी बस अकेली
अपने से बातें करती
कभी जागती, कभी सोती
बस किसी तरह बुढ़ापा कट जाये
यही रहती सोचती।
बच्चे डरते हैं
कहीं दादा दादी पढ़ाई न पूछ लें ,
बड़े डरते हैं कहीं कुछ फरमाइश न कर लें।
उनसे बातें करने के बच्चे नहीं हैं आदि ,
बड़ों को लगती है समय की बर्बादी।
बुजुर्गों से नहीं है अब कुछ लेना देना
जब तक हो फायदा है तब तक ध्यान देना।
समय की कमी ने सब बदल दिया
ज़माने की होड़ ने हेर फेर कर दिया।
हाल बुरा वहाँ है जहाँ नौकरों सा व्यवहार है
बड़े तो बड़े ,बच्चों के भी ऑर्डर तैयार हैं।
हमारे संस्कार, बुजुर्गों का तजुर्बा
अब कहीं छूटते जा रहे
चाह कर भी हम साम्राज्य नहीं जोड़ पा रहे।
इसी लिए संस्कारों की नींव हिल रही है
हर रोज़ अनहोनी घटना घट रही है।
बड़ों के तजुर्बों से जो मिलता है मान
गूगल बाबा की बातों में है कहाँ वो ज्ञान ?
आज भी जो करते हैं बुजुर्गों का मान
उनके तजुर्बों से बढ़ाते हैं ज्ञान
जीवन की दौड़ में रहते हैं अब्बल
जीवन उनका होता है सबसे सबल।
बड़ों की छाया है प्रभु का वास
बिन भक्ति के भी है फल की आस।
उनका प्यार होता है निस्वार्थ
बदले में दो बातें करने की है प्यास।
अमरता का वरदान न कोई लेकर आया !
फिर क्यों कई घरों में वृद्धों को बिसराया
अपना सब उन्होंने अपने बच्चों पर लगाया
समय आने पर बच्चों ने उन्हें बोझ पाया।
जिन्होने था अंगुली पकड़ चलना सिखाया
उन्ही को सहारा देने से मन क्यों कतराया,
अपना किया तब समझ आयेगा
जब अपना बच्चा ये सब दोहरायेगा।
बोये पेड़ बबूल के तो आम कहाँ से होए
अगर तुम न पूछोगे तो तुम्हे भी पूछेगा न कोए।
समय रहते संभल गये यदि हम सब
अपना बुढ़ापा भी हो जायेगा सफल तब।