चले जाते हैं कहाँ
चले जाते हैं कहाँ
किसी शायर ने क्या ख़ूब लिखा हैं,
दुनिया से जाने वाले,
जाने चले जाते हैं कहाँ ?
कैसे ढूँढे कोई उनको,
नहीं कदमों के भी निशान !
जीवन का यथार्थ,
ज़िन्दगी अर्ध सत्य, मौत सत्य !
सूक्ष्म आत्मा का निकलना,
हमारा मौत के आग़ोश में सोना,
न हँसना, न रोना,
चिर निद्रा में सोना !
ये हँस पखेरू,
न जाने कहाँ चला जाता हैं उड़कर ?
न समझ पाए ये फ़लसफ़ा !
अंतरिक्ष तक में सेंध लगा दी हमने,
पर समझ नहीं आया,
सूक्ष्म जीव कहाँ चला जाता हैं ?
कठपुतली की तरह नाचना,
किसी शक्ति का डोर खींचना,
हमारा यूँ चिर निद्रा में सोना,
क्षण - भंगूर हैं हम !
एक श्वास भी नहीं,
उसकी इज़ाज़त के बिना !
सक्षम हैं क्लोन बनाने में,
सक्षम हैं रोबोट बनाने में,
नहीं पार पाए हैं,
तो बस मौत पर !
ता उम्र मौत के खौंफ में,
जीते हैं हम !
दुल्हन सा सजा शरीर,
बन जाता हैं फ़िर ख़ाक !
दो गज़ कफ़न,
बस जाता हैं साथ !
पीछे छोड़ जाते हैं,
बस रोता - बिलख़ता परिवार !
उन सब से बेख़बर,
जाने चले जाते हैं कहाँ ?
जिनके बिन एक पल भी न रह पाते थे,
जिनकी एक चीख़ पर ही सहम जाते थे,
आज न चीख़ की परवाह, न रोने का भय !
सो जाते हैं फ़िर चिर निद्रा में,
फ़रिश्ते की तरह !
रिश्तों से परे, आत्मा रूपी जीव,
जाने चला जाता हैं कहाँ ?
फोटो छपती सिर्फ़ अख़बारों में,
ढूँढ़ते रहते हम उनको सितारों में !
काम आये देश के, वो ज़िन्दगी !
नाम कर जाए जहान में, वो ज़िन्दगी !
मौत को अमर बनाये, वो ज़िन्दगी !
फूल की तरह शहीदों के हार में
गूँथी जाए, वो ज़िन्दगी !
मर कर भी दूसरों के दिलों में
चिराग़ जलाये, वो ज़िन्दगी !
चाह हैं मेरी, शहीदों की तरह शहादत पाऊँ !
वतन पर जान लुटाऊँ !
बेमौत न मारा जाऊँ !
यूँ तो दुनिया में सब,
आते और जाते हैं "शकुन",
पर चंद ही हैं जो,
अमरत्व का घूंट पी पाते हैं !!