छंद
छंद
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भाव शून्य जब-जब होता है, नहीं शिल्प गढ़ता है छंद।
कहां हृदय तब प्रमुदित होता, कहाँ मिले फिर शुचि आनंद ।।
गढ़ी-गढ़ी जब मात्रा होती, और न हो भावों का शोर..
सुनने वाले कुछ ही होते, रहे पंक्तियाँ इनकी चंद।।
जहाँ भाव छूते हैं धड़कन, अरु तन भी जब भरे हिलोर..
हृदय-वाटिका पुष्पित होती, महके मन बनकर मकरंद।
भाव-शिल्प से सधी क़लम जब, बिखराए तब जग में इत्र ..
राज करे है कवि दिल में तब, बनते पहली वही पसंद।
गुरुवर मेरे इतने अच्छे, सिखलाए हैं भाव-विधान ..
एक पद्य पढ़ ले जो उनके, भाव-शिल्प पा जाए कंद।
