छंद -कुण्डलिया
छंद -कुण्डलिया
१.संयुक्त परिवार
जीते अपनों के बिना, कैसा है अंधेर।
प्रेम-पुष्प मुरझा रहा, देख समय का फेर।
देख समय का फेर, कहां है दादा-दादी।
हुआ स्वार्थ का राज, हो रही बस बर्बादी।
सुन लो 'अभि' की बात, हृदय के घट अब रीते।
टूट रहे परिवार, कौन किसका मन जीते।
२.दहेज
बेटी धन अनमोल है, रखना इसका ध्यान।
इसके सपनों को मिले, ऊंची सदा उड़ान।
ऊंची सदा उड़ान, पंख मत कटने देना।
देना उसका साथ, सही तुम निर्णय लेना।
दानव बना दहेज, खुशी है उसकी मेटी।
कोमल सा है फूल, हृदय का टुकड़ा बेटी।।
३.किसान के मसले
आशा ले के न्याय की, भटके रोज किसान।
जीवन नैया डोलती, संकट में है जान।
संकट में है जान, कर्ज नित बढ़ता जाता।
कैसे बचे किसान, उसे कुछ समझ न आता।
पूंजी का सब फेर, न पूरी हो अभिलाषा।
देख भाग्य के खेल, करे फिर कैसी आशा।
४..वृद्धाश्रम
देखा सखी समाज का, बदला कैसा रूप।
मां-बाप वृद्धाश्रम में, बेटे बनते भूप।
बेटे बनते भूप, करें अब अपने मन की।
वृद्ध हुए मां-बाप, कौन सुध लेता उनकी।
मन में है अभिलाष, मिले फिर घर की रेखा।
रोते हैं मां-बाप, सखी ये हमने देखा।
५.मोबाइल
मोबाइल के फेर में, उलझे सारे लोग।
नेत्र रोशनी घट रही, बढ़ते जाते रोग।
बढ़ते जाते रोग, जिया में चैन न आए।
नए-नए नित खेल, रहे मन को उलझाए।
होता है खिलवाड़, करें ये दिल को घायल।
हुई बैटरी बंद, देखता मैं मोबाइल।
६.इंटरनेट(अंतर्जाल)
देखा है विज्ञान का, बड़ा निराला खेल।
अंतर्जाल करारहा, अखिल विश्व का मेल।
अखिल विश्व का मेल, बात है बड़ी अनोखी
मन पर करता राज, ज्ञान की बातें चोखी।
रसिक बने सब लोग, बना ये जीवन रेखा।
शेष नहीं रुचि और, बंद जब इसको देखा।