चार कविता पानी थोर नागफनी अभिव्यक्ति
चार कविता पानी थोर नागफनी अभिव्यक्ति
पानी
पहाड़ों की विशालकाय चट्टानों से
रिसता बर्फ सा ठंडा पानी
मौस और फर्न के कोमल पौधों के
बीच से रेंगता पानी
पहाड़ी झरनों से गिरता पानी
ढलानों से दौड़ता पानी
चट्टानों से टकराता पानी
पानी रिसता है रेंगता है गिरता है,
पड़ता है टकराता है किन्तु,
टूटता नहीं अपना वजूद
बरकरार रखता है/ पानी।
थोर
पहाड़ी चट्टानों के बीच उगी,
लम्बी देह वाली थोर
अभावों के बीच पली कुरूप,
काँटों भरी किन्तु, हरित देह की
संवेदनशीलता कितनी गहन है
खरोंच भर से ही दूध की तरह
उफनकर बह निकलती है।
नागफनी
ऊँचे कंकरीले टीले पर किसने जड़ दिये हैं
मोटे, लम्बे-चौड़े नुकीले काँटों भरे हाथ
तमाम भदेसपन के बावजूद
कंकरीले टीले की रेतीली माटी से
जल के बूंदांश से प्राण ग्रहण करता
जीवन/ जीने के संघर्ष की प्रक्रिया में
नागफनी के सुर्ख फूल सा खिल उठता है।
अभिव्यक्ति
यांत्रिक अभिव्यक्ति और
अभिव्यक्ति की मुद्राएँ कि
आँखें अब सतह को भेद नहीं पाती
कि बातें सतह से उठकर सतह पर ही
समाप्त हो जाती है
कि मस्तिष्क के विचार हृदय की
गहराई तक /उतर नहीं पाते आओ,
हम सब उस गहराई /में उतरें,
जहाँ आत्मीय अभिव्यक्ति हो
नितांत मौलिक एवं आत्मीय ।