बूढ़ी आँखे
बूढ़ी आँखे
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अनवरत जागती वो बूढ़ी आँखें तेरे आने
की आहट पाने के लिये द्वार को ताकती
बूढ़ी आँखें ,
अब वो निवाला भी हलक़ से निगला
जाता नही तुम्हे खिला के जो खाती थीं
बूढ़ी आँखें !
चार थीं वो कभी तुम्हारे आने से छः
हुआ करती थीं तुम क्या गये दो बची
बूढ़ी आँखे ,
घर का वो आँगन भरा पूरा था कभी
आज देख कर वीरानगी आँसू बहाती
बूढ़ी आँखें !
याद करो वो तुम्हारे बीमार पड़ते आँखों
में गुजारती रातें आज खुद लाचार हैं
बूढ़ी आँखें ,
रोके रखी थी वो एक साँस जो तुमसे
मिलने के लिये चल बसी इस आस में
बूढ़ी आँखें !!
