बिन पेंदी का लोटा
बिन पेंदी का लोटा
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घबरा कर वो घर में गया सब तितर-बितर कर दिया।
जाने वो क्या ढुंढ रहा था जो उसे मिल नहीं रहा था।
देखते ही देखते उसे वो मिल गया।
वो अपनी कहीं ना टिकने वाली ज़बां ढूंढ रहा था।
जो उसे भला लगता उसकी तरफ हो जाता।
किसी से करा वादा एक पल में तोड़ जाता।
कौन सा है जीवन जो वो जी रहा था।
किसी का नहीं हो के वो सब का हो रहा था।
जिसके सामने जाए वो उसकी गा रहा था।
वो एक झूठा गीत सब को सुना रहा था।
सब उसकी बातों से कुछ हद तक परिचित थे।
जब आती थी अपनी बड़ाई तब सब भूल जाते थे।
वो किसी के कान में किसी के लिए जहर फैला जाता था।
वो जहाँ मर्जी वहाँ फिसल जाता था।
वो बिन पेंदी का लोटा था।
एक जगह टिक कर किसी का हो नहीं पाता था।
